दुनिया के कई अध्यन साबित कर चुके है कि हर इंसान के अन्दर शक्तियों का भण्डार है | वह मन चाहि दुनिया का सृजन कर सकता है | रूजवेल्ट से लेकर विवेकानंद सरीखी हस्तियाँ भी मानती है कि हम महान लक्ष्यों को छूने के लिए पैदा होते है | ऐसे में सवाल उठता है कि सामर्थ्य और शमताए होने के बावजूद हमें औसत जिन्दगी जीने के लिए कौन बाध्य करता है ?
जब कार्यशालाओ या सेमिनारो में यह सवाल पूछा जाता है तो लोग प्राय:परिस्थियों या फिर धन-साधनों की कमी को जिम्मेदार ठहराते है | कुछ लोग अपने हालात के लिए समाज राजनीती या देश के माहोल को जिम्मेदार मानते है | किस्मत को कोसने वाले भी कम नहीं होते | दरअसल हम अपनी जिन्दगी की कहानी को खुद लिखते है | रोचक बात यह है कि इस कहानी में नायक भी हम होते है और खलनायक भी हम | नायक के रूप मे विश्वास से भरा हमारा मूल स्वभाव होता है जो अपने जूनून के लिए कुछ भी कर गुजरने को तेयार रहता है | खलनायक के रूप में हम नायक के दुश्मन होते है | दोनों ही लगाम हमारे हाथों में होती है | मजे की बात यह है की दोनों ही पात्र अपने-अपने सिंहासन पर बैठे होते है |
मान लीजिये की आपका अंतर्मन मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़कर होटल खोलना चाहता है | वह अपने पक्ष में तर्क देता है - 'छोटी-सी जिन्दगी है उसे अपने मन मुताबिक जीना चाहिए | नए रास्तों पर चलकर अपनी संभावनाओ को तलाशना चाहिए | उसी समय खलनायक भी सामने आ खड़ा होता है | वह नायक को डराता है | निराशा और नाकामियों की खौफनाफ तस्वीरें पेश करता है | खलनायक चेतावनी देता है कि सुरक्षा के घेरे में रहो और जोखिम मत उठाओ | ऐसे में हम चुनाव करते है कि निर्णय किसके पक्ष में देना है | आत्मविश्वास से भरे नायक का या डर और शंकाओ से भरे खलनायक का ? जब नायक के साथ खड़े होते है तो उसे याद दिलाते है कि तुम शक्तिशाली हो, बस एक कदम उठाओ और वह काम कर डालो जो करना चाहते हो | जब खलनायक के साथ खड़े होते है तो हम डरों और शंकानो को न्योता देते है | मौका मिलते ही वे हमें गिरफ्त में ले लेते है |
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